बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत बीए सेमेस्टर-1 संस्कृतसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-1 संस्कृत
प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
उत्तर -
इति माहेश्वराणि सूत्राणि
व्याख्या - यह शिवजी से आये हुए (सूत्राणि) चौदह सूत्र (अणादि) अण् अक आदि (संज्ञार्यादनि) संज्ञा के निमित्त है जो अहिरन्त्येनसहेता सूत्र से सिद्ध होती है।
इत्संज्ञा
व्याख्या - यह एक ऐसी संज्ञा है जिसके द्वारा विभिन्न अनुबन्धों को लुप्त होने योग्य बनाया जाता है। क्रमश: (i) सर्वप्रथम उपदेश अर्थात पाणिनि आदि के उच्चारण में जो हल सबसे अन्त में होता है उसकी 'इत्संज्ञा' होती है। (ii) तथा उस इत्संज्ञा' हल की जिसका श्रवण तो होता है परन्तु इत्संज्ञा' होने के कारण इसकी लोप संज्ञा हो जाती है। (iii) फिर 'हलन्त्यम्' उपदेशेजनुनासिक 'इत्' इत्यादि सूत्रों से जिसकी 'इत्सज्ञा' हो चुकी है उसका लोप हो जाता है। यथा अण प्रत्याहार में ण' की, 'तिप' में 'प' की और 'सुप' में जो अन्तिम हल तथा उपदेश अवस्था वाले 'अच ́ भी मिलते है उनकी भी 'इत्संज्ञा' इसी तरह होती है।
ऋरषाणां मूर्धा
ऋ अठारह प्रकार का है - (टु) ट वर्ग ट ठ ड ढ ण (रषाणाम्) र और ष का (मूर्धा) मूर्द्धा स्थान है।
हलन्त्यम्
अनुवाद - उपदेश की अवस्था में अन्तिम हल् वर्ण इत्सञ्ज्ञा वाला होता है।
व्याख्या - सूत्र में हल् तथा अन्त्यम् दो प्रथमान्त पद हैं। इन दो पदों से सूत्र का भाव स्पष्ट नहीं हो पाता। सूत्रार्थ को स्पष्ट करने के लिए 'उपदेशेऽजनुनासिक' इत् सूत्र से 'उपदेशे' तथा 'इत्' इन दो पदों की अनुवृत्ति करने पर सूत्र का अर्थ स्पष्ट होता है। यह सूत्र 'इत्' नामक सञ्ज्ञा का विधान करता है। अतः इसे इत्सञ्ज्ञा विधायक सूत्र कहा जाता है। 'हल्' प्रत्याहार है। उससे हयवरट् के 'ह' से लेकर 'हल्' सूत्र के 'ल' के बीच वाले वर्णों अर्थात् समस्त व्यञ्जन वर्णों का बोध होता है।
अदर्शनं लोपः
अनुवाद - विद्यमान का, न दिखाई पड़ना, लोप इस सञ्ज्ञा वाला होता है।
व्याख्या - यह लोप संज्ञा का विधान करने वाला सूत्र है। व्याकरण दर्शन के अनुसार शब्द नित्य हैं। वे कभी नष्ट नहीं होते। यदि यहाँ लोप का अर्थ नष्ट होना माना जाये तो शब्दों की नित्यता का सिद्धान्त बाधित हो जाता है। अतः यहाँ लोप का अर्थ अदर्शन = न दिखाई पडना माना गया है। अदर्शन से अभिप्राय वर्णों की अश्रूयमाणता से है अर्थात् जिन वर्णों की लोप सञ्ज्ञा होती है उनका ग्रहण (बोध) नहीं किया जाता है। लुप्त वर्ण रहते तो हैं पर व्यवहार में उनका ग्रहण नहीं होता जैसे - अइउण का वर्ण रहता है पर लोप होने के बाद उसका बोध नहीं होता। वृत्ति में आये हुए 'प्रसक्तस्य' पद का अर्थ 'स्थानस्य' है। स्थानेऽन्तरतम 1. 1. 50 सूत्र से 'स्थाने' पद की अनुवृत्ति करके उसे षष्ठ्यन्त रूप 'स्थानस्य' में परिणत कर यहाँ वृत्ति में जोड़ा गया है। दर्शन शब्द भी यहाँ पर्यायवाची है। शब्द का ज्ञान श्रवण ही है अतः यहाँ 'प्रसक्तस्य अदर्शनम्' का अर्थ हुआ वर्तमान शब्द के श्रवण का अभाव।
तस्य लोपः
अनुवाद - इस इत्सञ्ज्ञक वर्ण का लोप होता है।
व्याख्या - सूत्र में 'आया' 'तस्य' पद सभी इत्सञ्ज्ञक वर्णों का वाची है। जिस वर्ण की इत्सञ्ज्ञा 'हलन्त्यम्' आदि किसी भी सूत्र से की गयी हो उसका इस सूत्र से लोप होता है। इत्सञ्ज्ञा विधायक सूत्र निम्नाङ्कित हैं -
1 हलन्त्यम्।
2. उपदेशोऽजनुनासिक इत्।
3. आदिर्जिंटुडवः।
4. षः प्रत्ययस्य।
5. चुटू।
6. लशक्वतद्धिते।
आदिरन्त्येन सहेता
अनुवाद - अन्तिम, इत्सञ्ज्ञक वर्ण के सहित, (उच्चार्यमाण) प्रथम वर्ण, मध्यवर्ती वर्णों का स्वस्य च = और अपना अर्थात प्रथम वर्ण का भी बोधक होता है।
व्याख्या - इस सूत्र से प्रत्याहारों की सिद्धि होती है। यह प्रत्याहार संज्ञा विधायक सूत्र है। अण आदि 42 प्रत्याहार इससे सिद्ध होते हैं। इस प्रकार अण्. अक आदि संज्ञा करने वाला यही सूत्र है। जैसे अ और च् = अच् संज्ञा है तथा बीच वाले वर्ण इ उ ऋ लृ ए. ओ. ऐ ओ संज्ञा हैं। अ का अर्थात् प्रत्याहारों के आदि वर्ण का भी इसमें ग्रहण हो जाये इस हेतु यहाँ 'स्वरूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा सूत्र से स्वं पद की अनुवृत्ति होती है और षष्ठ्यन्त (स्वस्य) रूप से वह यहाँ जोड़ा जोता है। इस प्रकार सूत्र का पूर्वोक्त अर्थ स्पष्ट होता है।
प्रत्याहार - प्रत्याहिन्ते संक्षिप्यन्ते वर्णाः यत्र स प्रत्याहार, अर्थात् जिससे वर्णों को संक्षिप्त कर दिया जाये उसे प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार के द्वारा सक्षेप में (दो अक्षरों के द्वारा) अधिक से अधिक वर्णो का कथन होता है। प्रत्याहार में दो वर्ण होते है। दूसरा वर्ण तो उस चौदह सूत्रों का कोई अन्तिम वर्ण नहीं होता है, पर उसका आदि (प्रथम) वर्ण इन सूत्रों का आदि अथवा मध्यवर्ती वर्ण होता है, जैसे- अचु प्रत्याहार का आदि (प्रथम) वर्ण 'अ' तो अइउण सूत्र का आदि वर्ण है किन्तु इक प्रत्याहार का आदि वर्ण इ अइउण का मध्यवर्ती वर्ण 'अ' व्यञ्जन न होकर स्वर है तथा वह सूत्र का अन्तिम वर्ण नहीं है। इस प्रकार निर्मित प्रत्याहार में इत्सञ्ज्ञक वर्णों को छोड़कर उनके दोनों अक्षरों के बीच में आये सभी वर्णों का परिगणन होता है।
ऊकालोऽज्झस्व - दीर्घ-प्लुतः
अनुवाद - (हस्व उकार) उ, (दीर्घ उकार) ऊ. (प्लुत उकार) ऊ 3 (की सन्धि से बने ऊ के प्रथमा बहुवचन में 'व' होता है)। उन तीनों उकारों के उच्चारण काल के समान काल हो जिस अच् (स्वर) का वह अच क्रम से ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत सञ्ज्ञक होता है।
व्याख्या - उ + ऊ + ऊ 3 की सवर्ण दीर्घ सन्धि करने से ऊ रूप होता है। 'ऊ' का प्रथमा बहुवचन में 'व' रूप होता है तथा षष्ठी बहुवचन में चाम्। इन दोनों का सूत्रवृत्ति में निर्देश है। सूत्रगत 'ऊकाल' शब्द का समास विग्रह है वा काल इव कालो यस्य सः। जैसे मृगस्य अक्षिणी इव अक्षिणी यस्याः सा मृगाक्षी ऊकाल' का 'ऊ' लाक्षणिक पद है। स्वोच्चारणकाल (स्व = उ) अर्थ में यह लक्षणा है।
यह ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत सज्जा का विधायक सूत्र है। इस सूत्र का स्पष्ट अर्थ है- ह्रस्व उकार के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना समय जिस अच् (स्वर) में लगे उसे ह्रस्व, दीर्घ उकार के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतना समय जिस अच् (स्वर) के उच्चारण में लगे उसे दीर्घ तथा प्लुत उ के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना समय जिस अच् (स्वर) के उच्चारण में लगे उसे प्लुत कहते हैं।"
इस सूत्र से एकमात्रिक (एक मात्रा वाले) स्वर की ह्रस्व, द्विमात्रिक (दो मात्रा वाले) की दीर्घ तथा त्रिमात्रिक (तीन मात्रा वाले) स्वर की प्लुत सञ्ज्ञा होती है। चुटकी बजाने या पलक गिराने में जितना समय लगता है उतने ही समय का नाम मात्रा है। यहाँ तीन शब्द का अर्थ है 'अनेक, अतः चार या उससे भी अधिक मात्रा वाले स्वर को भी प्लुत कहा जाता है। मात्रा शब्द का अर्थ है 'अंश'। अतः समय का वह अश जिसमें एक स्वर उच्चारित हो जाये, मात्रा है।
उदात्त-अनुदात्त-स्वरित का प्रयोग वेद में प्राप्त होता है। इन्हें चिह्नों द्वारा दिखाया जाता है। अनुदात्त स्वर के नीचे पड़ी रेखा (-) होती है तथा स्वरित स्वर के ऊपर खड़ी रेखा (।) होती है। उदात्त स्वर का कोई चिह्न नहीं होता है जैसे उदात्त - अ, इ। अनुदात्त - अ, इ। स्वरित - अ इ । उदात्त आदि के द्वारा एक स्वर के नौ भेद होते हैं. जैसे -
(1) ह्रस्व उदात्त अ, (2) ह्रस्व अनुदात्त अ, (3) ह्रस्व स्वरित अ, (4) दीर्घ उदात्त आ, (5) दीर्घ अनुदात्त आ, (6) दीर्घ स्वरित आ, (7) प्लुत उदात्त अ 3, (6) प्लुत अनुदात्त अ 3, (6) प्लुत स्वरित अ 3।
मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः
अनुवाद - मुख के साथ नासिका के द्वारा उच्चरित होने वाले अक्षर अनुनासिक सञ्ज्ञक होते हैं।
व्याख्या - यह सूत्र अनुनासिक-सञ्ज्ञा विधायक है। वर्णों का उच्चारण मुख से तो होता ही है पर किन्ही वर्णों के उच्चारण में मुख के साथ नासिका का भी सहयोग होता है। इस प्रकार वर्णों के अनुनासिक और अननुनासिक (= निरनुनासिक) दो वर्गीकरण हो जाते हैं। नासिका के सहयोग से उच्चरित वर्ण अनुनासिक तथा इससे भिन्न वर्ण अनुनासिक कहे जाते हैं। ञ, म, ड, अॅ, कॅ आदि अनुनासिक हैं।
अ, इ, उ, ऋ इन चारों स्वर वर्णों में प्रत्येक के अठारह भेद होते हैं। लृ इस स्वर के बारह भेद होते हैं क्योंकि यह दीर्घ नहीं होता है। एचों (ए. ओ, ऐ, औ) के भी बारह भेद होते हैं क्योंकि वे सभी ह्रस्व नहीं होते।
ऊकालोज् - 0 सूत्र से लेकर इस सूत्र (मुखनासिकाव - 0) तक पांच सञ्ज्ञा विधायक सूत्रों में वर्णों के भेद बताये गये हैं। वर्णभेद के आधार पर निम्नांकित हैं - 1. मात्रा पर आधारित भेद (ह्रस्व दीर्घ प्लुत) 2. वर्णोच्चारण स्थान पर आधारित भेद (उदात्त-अनुदात्त स्वरित), 3. नासिका के सहयोग पर आधारित भेद (अनुनासिक-अननुनासिक)।
तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम्
अनुवाद - तालु आदि वर्णोच्चारण स्थान और आभ्यन्तर प्रयत्न, ये दोनों जिस वर्ण का, जिस वर्ण के साथ मिलते हों, उन वर्णों की परस्पर सवर्णसञ्ज्ञा (नाम) होती है।
व्याख्या - यह सवर्ण संज्ञा विधायक सूत्र है। सूत्र का तात्पर्य समझने के लिए तुल्यास्य प्रयत्न का जान लेना आवश्यक है - 'आस्ये' - मुखे भवम् आस्यम् = स्थानम्। प्रकृष्टः प्रारम्भिको वा यत्नः प्रयत्नः आभ्यन्तरप्रयत्नः। तुल्यं च तुल्यश्च तुल्यौ। तुल्यौ आस्यप्रयत्नौ यस्य = वर्णसमूहस्य तत् तुल्यास्य प्रयत्नम्।
जब हम किसी वर्ण का उच्चारण करना चाहते हैं, तब बुद्धि से उसके उच्चारण का निश्चय होता है। निश्चय होते ही मन जठराग्नि को प्रदीप्त करता है और जठराग्नि सद्यः ही वायु को प्रेरित करती है। वायु नाभिस्थल से ऊपर उठकर मूर्धा (ब्रह्माण्ड) में टकरा जाती है और शीघ्र ही लौटकर मुख से बाहर निकलती विभिन्न उच्चारण स्थानों में टकराने के कारण विभिन्न वर्णों को उत्पन्न करती है। वर्णों के उच्चारण स्थान आगे निर्दिष्ट हैं।
आभ्यन्तर प्रयत्न - वर्णों का उच्चारण करते समय विशेष प्रकार का प्रयत्न (प्रयास) करना आवश्यक होता है। कुछ प्रयत्न मुख के भीतर से किये जाते है। इन्हीं प्रयत्नों को आभ्यन्तर प्रयत्न कहा जाता है। आभ्यन्तर = भीतरी अर्थात् मुख के भीतर का प्रयत्न = प्रयास। आभ्यन्तर प्रयत्न पाच प्रकार के होते हैं, जिनका वर्णन आगे हैं। मुख के बाहर से किये गये प्रयत्न बाह्य प्रयत्न कहे जाते हैं जैसे मुख का खुलना (विवार) बाह्य प्रयत्न है। इसका वर्णन भी आगे है। सवर्ण राज्ञा में केवल आभ्यन्तर प्रयत्नों का ही उपयोग होता है। आभ्यन्तर प्रयत्न का अनुभव उच्चारणकर्ता ही कर सकता है तथा बिना इसके बाह्य प्रयत्न निष्फल होते हैं। इसी कारण इसे प्रकृष्ट = श्रेष्ठ यत्न कहा जाता है। सवर्ण होने के लिए निम्नाङ्कित नियम आवश्यक हैं.
(अ) दोनो वर्णों के उच्चारण स्थान समान हों।
(ब) दोनों के आभ्यन्तर प्रयत्न एक समान हों।
इस नियम के अनुसार क् ड् की सवर्ण संज्ञा अप्राप्त है क्योंकि ड का स्थान नासिका भी हैं
ड् 'क' का उच्चारण स्थान नासिका नहीं है। पर यहाँ मुख के भीतर वाले स्थानों तथा प्रयत्नों की समानता ही उपेक्षित है। अतः क ड़, की सवर्ण सञ्ज्ञा हो जाती है। इ. ए की सवर्ण सञ्ज्ञा नहीं होती है क्योंकि ए का स्थान 'कण्ठ तालु' है पर इ का केवल तालु। ए ओ की तथा ऐ औ की भी सवर्ण सञ्ज्ञा हो सकती है पर होती नहीं क्योंकि 'एओड़ से भिन्न 'ऐऔच्' सूत्र बनाया गया है।
ॠ और लृ वर्णों की परस्पर सवर्ण सञ्ज्ञा कहनी चाहिए।
विमर्श - स्थान भिन्न होने के कारण इन दोनों वर्णों की सवर्ण सञ्ज्ञा प्राप्त नहीं थी पर 'तवल्कार' आदि प्रयोगों की सिद्धि के लिए दोनों की सवर्ण सञ्ज्ञा आवश्यक है, अतः वार्तिककार ने सवर्ण संज्ञा के लिए वार्तिक की रचना की।
अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः
अर्थ- अ. कु = क वर्ग, है तथा विसर्जनीय = विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ है।
इचुयशानां तालु - इ. चु = च वर्ग, य तथा श का स्थान तालु है।
ऋटुरषाणां मूर्धा - ऋ टु = ट वर्ग, र और ष का स्थान मूर्धा है।
लृतुलसानां दन्ताः
लृ तु = त वर्ग, ल तथा स के स्थान दन्त हैं।
उपूपध्मानीयानामोष्ठो - उ. पु = प वर्ग तथा उपध्मानीय के स्थान दोनों ओष्ठ हैं।
अमड्णनानां नासिका च - ञ म ङ ण तथा न का स्थान नासिका भी है।
एदैतो कण्ठतालु - ए तथा ऐ का स्थान कण्ठ और तालु है।
ओदौतोः कण्ठोष्ठम् ओ तथा औ का स्थान कण्ठ और ओष्ठ हैं।
वकारस्य दन्तोष्ठम्
वकार का स्थान दन्त और ओष्ठ है।
जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् - जिह्वामूलीय का स्थान जिह्वा का मूल है।
नासिकानुस्वारस्य - अनुस्वार का स्थान नासिका है।
विमर्श - कु' शब्द का अर्थ क वर्ग होता है। इसी प्रकार 'चु' का च वर्ग 'टु' का ट वर्ग, 'तु का त वर्ग तथा 'पु' का प वर्ग होता है। विसर्ग का स्थान यहाँ कण्ठ बताया गया है। पर यह ध्यातव्य है कि अकार के बाद आये विसर्ग का ही स्थान कण्ठ है। इकार के बाद आने वाले विसर्ग का स्थान तालु हो जाता है। विसर्ग मूल वर्ण नहीं है यह स् अथवा र से बन जाता है। राम के विसर्ग का स्थान कण्ठ तथा हरिः के विसर्ग का तालु है।
1- यत्न दो प्रकार का होता है आभ्यन्तर और बाह्य
2- आद्य प्रथम अर्थात् आभ्यन्तर प्रयत्न पांच प्रकार का होता है - (क) स्पृष्ट, (ख) ईषत्स्पृष्ट, (ग) ईषदविवृत, (घ) विवृत और (ड) संवृत।
3- उनमें स्पृष्ट नामक प्रयत्न स्पर्श वर्णों का होता है।
4- अन्तःस्थ वर्णों का प्रयत्न ईषतस्पृष्ट है।
5- ऊष्म सञ्ज्ञक वर्णों का प्रयत्न ईषद्विवृत है।
6- स्वरों का प्रयत्न विवृत है।
7- प्रयोग में ह्रस्व 'अ' वर्ण का सवृत्त प्रयत्न है।
8- किन्तु प्रक्रिया प्रयोग साधन की दशा में तो उसका भी विवृत प्रयत्न ही होता है।
वर्णों का उच्चारण करने के लिए मुख के भीतर जो प्रयत्न किया जाता है उसे ही आभ्यन्तरं कहते हैं। मूर्धा तक पहुँचकर लौटा वायु मुख के तालु आदि स्थानों से टकराता हुआ बाहर निकलता है तभी वर्ण उत्पन्न होते है। विविधि वर्णों के उच्चारण हेतु वायु का तालु आदि से सटकर निकलना आवश्यक है। निर्धारित स्थान से ही वायु का घर्षण हो, इसके लिए जो प्रयास मुख के भीतर होते हैं उन्हें पांच प्रकार का माना गया है-
1. स्पृष्ट - जिस वर्ण का उच्चारण करने में जिह्वा उच्चारण स्थान का पूरा स्पर्श करती है, है। उसे स्पर्श वर्ण कहा जाता है। स्पर्श वर्णों का (कवर्ग आदि पांचों वर्गों का) आभ्यन्तर प्रयत्न स्पृष्ट स्पृष्ट = उच्चारण स्थान को पूरा स्पर्श करने वाला प्रयत्न है।
2. ईषत् स्पृष्ट- अन्तस्थः वर्णों के (य, व, र, ल वर्णों के) उच्चारण हेतु जिह्वा को उच्चारण स्थान का थोड़ा सा स्पर्श करने का प्रयत्न करना पड़ता है। अतः इस प्रयत्न को ईषत् स्पृष्ट प्रयत्न कहा जाता है। ईषत् = थोड़ा, स्पृष्ट = स्पर्श करने वाला प्रयत्न।
3. ईषद विवृत ऊष्म वर्णों के (श, ष, स, ह वर्णों के) उच्चारण में जिह्वा उच्चारण स्थान से थोड़ा अलग रहती है अत इन वर्णों का ईषद विवृत आभ्यन्तर प्रयत्न होता है। कण्ठ का थोड़ा सा विकास करके इनके उच्चारण किये जाने से भी इनका यह प्रयत्न मान्य है। ईषत् = थोड़ा, विवृत = खुला हुआ।
4. विवृत - स्वरों के उच्चारण में जिह्वा स्थान से दूर रहती हैं तथा कण्ठ विवृत अर्थात् पूरा खुला होता है अतः इनका विवृत प्रयत्न होता है।
5. संवृत - संवृत प्रयत्न में जिहवा कण्ठ से हटकर भी कुछ निकट रहती है तथा कण्ठ सवृत अर्थात् बन्द, ढंका सा रहता है। केवल हस्व 'अ' वर्ण का संवृत प्रयत्न है। वह भी तब, जब प्रयोग सिद्ध हो गया हो। यदि प्रयोग सिद्ध किया जा रहा है अर्थात वह प्रक्रिया दशा में है तो ह्रस्व 'अ' का भी विवृत ही प्रयत्न होगा।
साधन दशा में 'अ' का विवृत प्रयत्न ही क्यों माना गया? इसका उत्तर है कि यदि साधन के समय उसका संवृत्त प्रयत्न होगा तो अ + आ आदि में दीर्घ सन्धि नहीं होगी क्योंकि प्रथम अ का संवृत्त तथा दूसरे का विवृत प्रयत्न होने के कारण दोनों की सवर्ण सञ्ज्ञा नहीं होगी, परिणामतः 'अकः सर्वणे दीर्घ 'सूत्र दीर्घ सन्धि नहीं कर सकेगा और तब प्र + आचार्य = 'प्राचार्य' आदि प्रयोग सिद्ध नहीं हो सकेंगे। ह्रस्व 'अ' को दीर्घ 'आ' आदि के साथ दीर्घ सन्धि हो सके, इसलिए आवश्यक है कि दोनों का प्रयत्न एक हो। फलतः ह्रस्व 'अ का भी विवृत्त प्रयत्न माना गया। जब प्रयोग दशा में किसी सूत्र के लगने की अपेक्षा नहीं होगी अर्थात् प्रयोग सिद्ध हो जायेगा तब ह्रस्व 'अ' का संवृत्त प्रयत्न हो जायेगा।
वर्णोच्चारण बोधक कोष्ठक
स्थान | स्पर्श अनुनासिक |
अनुनासिक स्पर्श |
अन्तःस्थ | ऊष्म | हस्व स्वर | दीर्घ स्वर |
कण्ठ तालु मूर्धा दन्त ओष्ठ दन्तोष्ठ कण्ठतालु कण्ठोष्ठ |
क् ख् ग् घ् च् छ् ज् झ् ट् ठ् ड् ढ् त् थ् द् ध् प् फ् ब् भ् --- भ् --- भ् --- भ् |
ङ् ञ् ण् न् म् ।---। ।---। ।---। |
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ह् श् ष् स् ।---। ।---। ।---। ।---। |
अ इ ऋ लृ ।उ। ।---। ।---। ।---।
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आ ई ऋृ ।---।। ऊ। ।---। ।ए, ऐ। ।ओ, औ।
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बाह्य प्रयत्न तो ग्यारह प्रकार के होते हैं -
विवार - संवार - श्वास - नाद - घोष - अघोष - अल्पप्राण - महाप्राण - उदात्त - अनुदात्त और स्वरित। खर प्रत्याहार (के वर्णों) के विवार-श्वास-अघोष प्रयत्न हैं। हश् प्रत्याहार (के वर्णों) के संवार-नाद-घोष प्रयत्न हैं। (क वर्ग आदि पांचों) वर्गों के प्रथम तृतीय तथा पञ्चम वर्णों के तथा यण् प्रत्याहार (के वर्णों का) प्रयत्न अल्पप्राण है। वर्गों के द्वितीय चतुर्थ वर्णों तथा शल् प्रत्याहार के वर्णों का प्रयत्न महाप्राण है।
पहले यह बताया जा चुका है कि प्रयत्न शब्द का अर्थ वर्णोच्चारण के लिए किया गया प्रयत्न है। बाह्य प्रयत्नों का एक नाम अनुप्रदान भी है। मुख से बाहर का कलक (टेंटुआ) तक के प्रयत्न बाह्य प्रयत्न हैं। विवार प्रयत्न में नाभि से उठते वायु से गलविवर पूरा खुल जाता है और अलिजिह्वा श्वास नलिका से हट जाती है। संवार मे अलिजिह्वा श्वास नलिका से अलग नहीं होती तथा गलविवर सुकचित रहता है। विवार प्रयत्न के साथ-साथ श्वास प्रयत्न भी होता है क्योंकि श्वास नलिका खुली होने से श्वास का पूर्ण आवागमन होता है। नाद प्रयत्न में श्वास का आगमन विशेष ध्वनि से युक्त हो जाता है। नाद में ध्वनि की गम्भीरता रहती है। नाद वाले वर्ण घोष भी कहलाते हैं क्योंकि श्वास का कण्ठ में घर्षण होने से उच्चारण में घोष (गूंज) होती है। घोष प्रयत्न उन वर्णों का होता है जिनके उच्चारण में घोष नहीं होता। श्वास प्रयत्न उन वर्णों का होता है जिनके उच्चारण में घोष नहीं होता। श्वास प्रयत्न वाले वर्णों का ही अघोष प्रयत्न होता है।
यहाँ तक प्रयत्नों विवार-संवार श्वास-नाद घोष-अघोष का अर्थ बताया गया है। बाह्य प्रयत्न के तीन विभाग होते हैं। प्रथम विभाग में उपर्युक्त 6 प्रयत्न हैं। द्वितीय विभाग में अल्पप्राण महाप्राण हैं जिनके उच्चारण में प्राणवायु की अल्पता होती है उन्हें अल्पप्राण तथा जिनके उच्चारण में प्राणवायु की अधिकता होती है उन्हें महाप्राण कहा जाता है। स्वरों के बाह्य प्रयत्न उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित हैं। यह बाह्य प्रयत्न का तीसरा विभाग है। इन तीनों का अर्थ बताया जा चुका है। बाह्य प्रयत्नों का उपयोग वहाँ होता है जहाँ वर्णों की अत्यन्त समानता देखी जाती है। बाह्य प्रयत्नों को प्रयत्न नहीं, यत्न कहना ही शास्त्रसम्मत है। ऐसा क्यों है - यह आभ्यन्तर प्रयत्न के पूर्व निर्दिष्ट विवेचन से ज्ञातव्य है। प्रयत्नों का विवेचन यहाँ वर्णों के शुद्ध उच्चारण की शिक्षा प्रदान करने हेतु वर्ण सवर्णता की परीक्षा हेतु आवश्यक है। प्रयत्नों का नामकरण वर्णोच्चारण प्रक्रिया के आधार पर ही किया गया है।
कादयः = कृ है आदि में जिनके ऐसे वर्ण अर्थात् कृ से लेकर मावसानाः = म् है अवसान (अन्त) जिनका ऐसे अर्थात् म् तक के सभी वर्णों को, स्पर्शा = कहा जाता है। यणों (य् र् ल् व्) को अन्तःस्थ कहा जाता है। शलों (श् ष् स ह्) को ऊष्म कहा जाता है। अच् स्वर कहे जाते हैं। ---- क ----ख में क् ख् से पूर्व की आधे विसर्ग के समान (ध्वनि तथा लिपि) को जिह्वामूलीय कहते है। --- प ---- फ में प फ से पूर्व की आधे विसर्ग के समान (ध्वनि तथा लिपि) का नाम उपध्मानीय है। अं --- अः में अच के बाद वाले दोनो चिह्न क्रमशः अनुस्वार - विसर्ग है।
स्थान प्रयत्न के निरूपण में स्पर्श आदि नामों का प्रयोग आ चुका है। यहाँ उन सभी नामों के अर्थ बताये गये है। स्पर्श-अतः स्थ - ऊष्म-स्वर-जिह्वामूलीय-उपध्मानीय- अनुस्वार तथा विसर्ग व्याकरण की पारिभाषिक सञ्ज्ञायें है।
स्पर्शः क से लेकर म तक के 25 वर्णों का नाम स्पर्श इसलिए पड़ा क्योंकि इनके उच्चारण में जिह्वा का तालु आदि के साथ सम्पूर्ण स्पर्श होना आवश्यक होता है। जिह्वा के अग्र-मध्य-पश्चात आदि किसी भाषा से वायु प्रवाह को रोककर तालु आदि को स्पर्श करके छोड़ने से स्पर्श वर्ण उच्चरित होते हैं।
अन्तःस्थ - यण् प्रत्याहार के चारों वर्णों य् र् ल् व का नाम अन्तःस्थ है। अन्तःस्थ शब्द का अर्थ है मध्य में रहने वाला। स्वर तथा व्यञ्जन के बीच में ये चारों वर्ण माहेश्वर सूत्र मे आये हैं। वस्तुतः ये न तो स्वर हैं और न पूर्ण व्यञ्जन।
ऊष्म - ऊष्म शब्द गर्मी-भाप का पर्याय है। श् ष् स् ह् के उच्चारण में चूँकि ये महाप्राण हैं अत: प्राणवायु का अधिक उपयोग करते समय गर्मी आती है। तालु आदि स्थानों का अधिक घर्षण ही गर्मी लाता
है।
स्वर - स्वयं राजन्ते इति स्वरा। जिनके उच्चारण में अन्य सहायक वर्ण अपेक्षित न हो, उन्हें स्वर कहा जाता है। मूल स्वर अ इ उ ऋ लृ ये पांच हैं। ए, ऐ, ओ, औ सन्ध्यक्षर हैं।
जिह्वामूलीय और उपध्मानीय - क्रमशः क ख तथा पफ से पहले ही लिखे जाते है। लिखने मे इनका आकार आधे विसर्ग के समान अर्थात् अर्धवृत्त का जोड़ा जैसा होता है। उच्चारण में भी ये आधे विसर्ग के समान ध्वनि वाले होते हैं। विसर्ग के ही भेद ये दोनों हैं। ध्वनि तथा लिपि, दोनों में इनका विसर्ग से थोड़ा ही भेद है। जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय स्वतंत्र वर्ण नहीं है। इनका नामकरण उच्चारण स्थान के आधार पर है। जिल्हा के मूल भाग से उच्चरित जिह्वामूलीय तथा उपध्मान = ओष्ठ से उच्चरित उपध्मानीय हैं।
अनुस्वार और विसर्ग- अनुस्वार को नासिक्य कहा जाता है क्योकि इसका उच्चारण नासिका से होता है। अनुस्वार और विसर्ग सभी स्वरों के बाद होते हैं पर यहाँ अकार के बाद वाले दोनों उदाहरण प्रदर्शित हैं क्योंकि अ प्रथम स्वर है। विसर्ग स् या र् का विकार है।
अच:स्वरा
व्याख्या - तालु कण्ठ आदि स-भाग (स-खण्ड अथवा मुख के भीतर अन्य अपने ही समान भागो वाले) स्थानों के ऊपरी भाग से जिस अच (स्वर) की उत्पत्ति होती है उसे उदात्त कहते हैं जो अचः स्वराः का रूप होता है। अच का स्थान है = अ इ उ ऋ लृ ए ओ ऐ औ।
इचुयशानां तालुः
अर्थ - इ. च वर्ग (= चु अर्थात् छ ज झ ञ) य औ श तालु स्थान है।
व्याख्या - इस प्रकार तालु स्थान वाले इ. च वर्ग य श समान स्थान होने से सवर्ण संज्ञक है। जैसे (यथा) - अकुह विसर्जनीयानां कण्ठः अ क वर्ग (कु अर्थात् क् ख् ग् घ् ङ) ह और विसर्ग (.) का कण्ठ स्थान होने से तालु स्थान वाले वर्णों से समानता नहीं है तथा इसके विपरीत के और च का उच्चारण स्थान तालु है। अतः स्थान भेद होने से इनकी परस्पर सवर्ण सज्ञा नहीं होती है। वैसे आभ्यन्तर प्रयत्न इन दोनों का भी 'स्पृष्ट' ही है।
अकः सर्वेदीर्घः
अर्थ - अक प्रत्याहार से, सवर्ण अच् परे होने पर पूर्व + पर के स्थान में दीर्घ रूप एकादेश होता है।
व्याख्या - यह सवर्ण दीर्घ सन्धि करने वाला विधि सूत्र है। 'इकोयणचि' से 'अचि' पद की तथा 'एक पूर्वपरयो:' सूत्र की अनुवृत्ति आती है। समान स्थान तथा आभ्यन्तर प्रयत्न वाले वर्णों को परस्पर सवर्ण कहा जाता है। यह तुल्यास्य0 सूत्र में स्पष्ट ही है। अक प्रत्याहार में अ, इ, उ, ऋ तथा लृ आते हैं उनके आगे सवर्ण स्वर के रहने पर यह सूत्र दीर्घ करता है। तुल्यास्य0' सूत्र से अ का सवर्ण अ इ का इ. उ का उ, ऋ का ऋ तथा लृ का लृ है। यह ध्यातव्य है कि यहाँ केवल 'अ', 'ई', 'उ' आदि हु स्वर्ण ही गृहीत नहीं होते अपितु अविदीयमान होने से अणुदित् सवर्णस्य चाप्रत्ययः के नियमानुसार वे ऊ. ई आदि अपने सभी भेदों के भी बोधक होते हैं। ऐसी दशा में यह सूत्र अ, इ, उ आदि के ह्रस्व, दीर्घ आदि सभी भेदों में रहने पर प्रवृत्त होता है। स्थानेऽन्तरतमः परिभाषा के कारण दीर्घ आदेश पूर्व + पर के अत्यन्त समान होता है। अकार के दीर्घ में 'आदगुणः' का तथा अन्य वर्णों के दीर्घ में यह 'ईकोयणचि का अपवाद है। जैसे - दैत्य + अरि, इस स्थिति में दीर्घ एकादेश होता है।
अणुदित् सवर्णस्य चाऽप्रत्ययः
अनुवाद - जिसका विधान न किया गया हो, ऐसा अण् और उदित् (कवर्ग आदि 5 वर्ग), सवर्ण के बोधक होते हैं।
व्याख्या - केवल इसी सूत्र में, अण् = अण् प्रत्याहार, परेण णकारेण = परवर्ती (अर्थात् लण के) णकार तक हैं।
कु चु टु तु पु एते उदिताः = कु - चु - टु - तु - पु ये उदित हैं।
अप्रत्ययः अण् उदित सवर्णस्य च, यह सूत्र का अन्वय है। यहाँ च के पश्चात् किसी पद की आवश्यकता प्रतीत हो रही है। 'स्वं स्वं शब्दस्याशब्दसञ्ज्ञा' सूत्र से 'स्व' पद की अनुवृत्ति होती है और वह स्व पद इस सूत्र में षष्ठयन्त 'स्वस्थ' होकर जुड़ता है। वृत्तिवाक्य में 'प्रतीयते' का अर्थ 'विधीयते लिखा है। सूत्रों के द्वारा जिसका विधान होता है उसी को प्रत्यय कहते हैं। इस प्रकार सूत्रों से विहित प्रत्यय, आगम आदेश आदि सभी को यहाँ प्रत्यय कहा गया है क्योंकि प्रत्यय का पारिभाषिक अर्थ नहीं बल्कि यौगिक अर्थ ही यहाँ स्वीकृत है। प्रत्यय ही विधीयमान होता है। अप्रत्यय = अविधीयमान्। जैसे सुधी + उपास्य में 'ई' अविधीयमान है तथा 'य्' आदेश विधीयमान है। 'अविधीयमान' केवल 'अण्' का ही विशेषण है। अत 'उदित' के साथ उसका सम्बन्ध नहीं होगा। फलतः 'उदित' चाहे विधीयमान हो या अविधीयमान हो, वह सवर्णों का बोधक होगा। इसी से 'जगाद' में 'कुहोश्चु' से विधीयमान ग को भी ज होता है।
अविधीयमान अण् ही सवर्णों का बोधक है। इसीलिए सुधी + उपास्य में दीर्घ 'ई' को 'य्' यण होता है। विधीयमान अण् सवर्ण बोधक नहीं होता इसीलिए 'इदम ईश्' सूत्र से इदम् के स्थान में ह्रस्व 'इ' ही होता है दीर्घ प्लुत नहीं।
अण प्रत्याहार दो प्रकार से बन सकता है। अइउण् के 'ण' तक तथा 'लण्' के 'ण्' तक। मात्र इसी सूत्र में अण् प्रत्याहार दूसरे णकार अर्थात् लण् णकार तक माना गया है। पाचों उदितों (कु, चु, टु, तु, पु) से अपने-अपने वर्ग के वर्णों का ज्ञान होता है जैसे 'कु' का अर्थ है कवर्गीय वर्ण।
इस सूत्र को सवर्णसूत्र ग्राहक सूत्र कहा जाता है। यह भी सञ्ज्ञा सूत्र है। इसे सवर्ण बोधक सञ्ज्ञा कहना चाहिए।
अ इत्यष्टादशाना सञ्ज्ञा। अ इति = 'अ' यह वर्ण, अष्टादशानां = अठारह भेदों का, सञ्ज्ञा बोधक होता है।
तथेकारोकारौ। तथा = उसी प्रकार, इकारोकारो = इकार और उकार भी (अपने अठारह भेदों के बोधक होते) हैं।
ऋकारस्त्रिंशतः। ऋकारः = ऋकार, त्रिंशतः तीस भेदों का (बोधक होता) है।
एवम् लृकारोऽपि - इसी प्रकार लृकार भी (अपने तीस भेदों का बोधक होता) है।
एचो द्वादशानाम् - एच् अपने बारह भेदों के बोधक हैं। अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से य् व् ल् तीनों वर्ण दो दो प्रकार के होते हैं।
अविधीयमान होने पर अण्, प्रत्याहार का कौन वर्ण अपने कितने सवर्णों का बोधक होता है इसे यहाँ बताया गया है। ऋ, लृ की सर्वण सञ्ज्ञा होती है, अतः 'ऋ' के अठारह तथा 'लू' के बारह भेदों का योग तीस होता है। 'य्' तथा निरनुनासिक य्, दोनों भेद लिये जाते हैं। इसी प्रकार व् और ल् के भी दो - दो भेद होते है. इस प्रकार समस्त अण्' वर्णों के भेद यहाँ स्पष्ट कर दिये गये हैं। ह् तथा र, ये दोनों वर्ण सवर्ण बोधक नहीं है क्योंकि इनका कोई सवर्ण नहीं है।
स्तोः श्चुना श्चुः।
अनुवाद - सकारतवर्गयोः शकार च वर्गाभ्यां योगे शकार च वर्गोस्तः।
व्याख्या - सकार और तवर्ग को शकार तच वर्ग के योग में शकार च वर्ग हो। सकार शकार और तथ को च वर्ग क्रम से हो। यथा - रामस् + शेते = समश्शेते। रामस् + चिनेगति = रामश्रिचनोति। सत् + चित् = सच्चित्। शार्द्धिन + जय = शाङ्गिञ्जय।।
परः सन्निकर्षः संहिता।
अनुवाद - वर्णों की अत्यन्त समीपता की संहिता सञ्ज्ञा होती है।
व्याख्या - यह संहिता सञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। पर सन्निकर्ष: का अर्थ है - अत्यन्त पास-पास रहना। व्याकरण का विषय होने से यहाँ 'सन्निकर्षः' शब्द का भाव वर्णों की समीपता है। इस प्रकार जो वर्ण बहुत पास-पास होते हैं, उन्हें संहिता में स्थित माना जाता है। सहिता का उदाहरण सुधी + उपास्य: है। यहाँ धकारोत्तरवर्ती 'ई' तथा उपास्यः का उकार दोनों (इ + उ) संहिता में स्थित है। समीपता ही संहिता है।
हलोऽनन्तराः संयोगः
अनुवाद - ( व्यवधान से रहित), अचों के द्वारा (किये गये). व्यवधान से रहित हल् वर्णों का संयोग सञ्ज्ञा होती है।
व्याख्या - यह संयोग सञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। व्यवधान दूसरे से ही होता है, सजातीयों का व्यवधान नहीं होता। अत हलो (व्यञ्जनों) के बीच अचो का ही व्यवधान होगा, हलों का नहीं। दो या अधिक व्यञ्जन इस प्रकार हो कि उनके बीच स्वर न हों तो उन व्यञ्जनों की संयोग सञ्ज्ञा होती है। यह संयोग सञ्ज्ञा व्यञ्जनों के समूह की होती है, प्रत्येक व्यञ्जन की नहीं। राष्ट्रियः में ष् ट् र् वर्णों के समूह की संयोग सञ्ज्ञा होती है।
सुप्तिङन्तं पदम्
अनुवाद - सुबन्त और तिडन्त की पद सञ्ज्ञा होती है।
व्याख्या - यह सूत्र पद सञ्ज्ञा विधायक है। यह व्याकरण की एक पारिभाषिक सञ्ज्ञा है। और तिङ् प्रत्याहार हैं। सुप् के अन्तर्गत 21 प्रत्यय हैं जो प्रतिपादिक अर्थात् सार्थक मूल शब्दों के बाद लगते हैं। सुप् प्रत्ययों के लगने पर ही समस्त अजन्त हलन्त शब्द रूप सिद्ध होते हैं। तिङ् के अंतर्गत 15 प्रत्यय हैं जो मूल धातुओं के बाद लगते हैं। तिड् प्रत्ययों के लगने पर ही समस्त धातु रूप सिद्ध होते हैं। जिनके अन्त में सुप् हों उन्हें सुबन्त तथा जिनके अन्त में तिङ हों उन्हें तिङन्त कहा जाता है। राम सुबन्त पद है यह 'राम' शब्द के बाद 'सु' प्रत्यय करने पर बनता है। भवति तिङन्त पद है। यह 'भू' धातु से तिप्' प्रत्यय करने पर बनता है। सुप् और तिङ् प्रत्ययों को ही विभक्ति कहते हैं।
एदैतोः कण्ठतालुः
व्याख्या 'ए' और 'ऐ' का उच्चारण स्थान कण्ठ + तालु है। तात्पर्य यह है कि ए और ऐ' ये दोनों स्वर (क्रमशः) कण्ठ और तालु स्थानों के मध्य भाग से उच्चरित होते हैं।
उपदेशेऽजनुनासिक इत्
अनुवाद - उपदेश अवस्था में अनुनासिक अच् (स्वर) इत्सञ्ज्ञक होता है।
व्याख्या - यह इत् सञ्ज्ञा विधायक सूत्र है। अगले सूत्र में र प्रत्याहार का प्रयोग किया गया है। प्रत्याहार का दूसरा वर्ण इत्सञ्ज्ञक होता है। यह बताया जा चुका है। र् + अ र प्रत्याहार के दूसरे वर्ण 'अ' को इत्सञ्ज्ञा यही सूत्र करता है तब र प्रत्याहार सिद्ध होता है। उपदेश अवस्था में जो अच् अनुनासिक हो उनकी यह इत्सञ्ज्ञा करता है। कौन सा अच् अनुनासिक है? इसके लिए यहाँ बताया गया है कि पाणिनि व्याकरण पढ़ने की जो प्रतिज्ञा अर्थात् गुरु परम्परा है उसी से पाणिनीय (पाणिनि द्वारा उक्त अनुनासिक वर्णों का ज्ञान होता है। सूत्रकार ने अनुनासिक पाठ अलग से लिखा था पर वह नष्ट हो गया। अब परम्परा से ही अनुनासिकों का ज्ञान होता है। लण् सूत्र से ल् के बाद वाला (ल + अ = अनुनासिक है अतः उसकी इस सूत्र से इत्सञ्ज्ञा हो जाती है। इस अन्त्य इत् अ के साथ कथित र से र और ल् दो वर्णों का ज्ञान होता है। अतः कृष्णर्द्धि में 'उरण रपरः' से रपर तथा तवल्कारः मे लपर होता है।
इकोयणचि
व्याख्या - इक इति षष्ठी। अतः षष्ठी स्थानेयोगे इति। परिभाषया स्थाने इति, लभ्यते। स्थान प्रसंग इत्युक्तम्। वर्णानां वर्णान्तराधिकरणत्वसासम्भवात् - अचीति सति सप्तमी। तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्व स्येति परिभाषया च वर्णान्तराव्य - वहितोच्चारितेऽचि सति पूर्व स्येति लभ्यते। एवं च अचिपरत इत्यर्थलभ्यम्। संहितायामिव्याधिकृत्यम्। तत्श्चार्धमात्राधिककालव्य व धानाभावो लभ्यते। एवञ्च फलितमाह - इकः स्थाने इत्यादिना।
सुप् प्रत्यय और उनके उदाहरण
विभक्ति | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन |
प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी सम्बोधन |
सु = रामः, अम् = रामम् टा = रामेण, रामाय, उसि = रामात् डस् = रामस्य ङि = रामे, सु = हे राम. |
औ = रामौ, औट = रामौ, श्याम् = रामाभ्याम्, भ्याम् = रामाभ्याम्. भ्याम् = रामाभ्याम्, ओस् = रामयो, ओस् = रामयो, औ = हे रामौ, |
जस् = रामा शस् = समान् भिस् = रामै: भिस = रामेभ्यः भ्यस = रामेभ्यः आम् = रामाणाम सुप् = रामेषु. जस् = हे रामा. |
तिङ प्रत्यय और उदाहरण
परस्मैपद भू धातु लट् लकार
एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | |
प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष उत्तम पुरुष |
तिप् = भवति, सिप् = भवसि, मिप् = भवामि, |
तस् = भवत.. थस् = भवथः. वस् = भवावः, |
झि = भवन्ति थ = भवथ मस् = भवामः |
आत्मनेपद वृधु धातु लट् लकार (वर्धते = बढ़ता है)
एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | |
प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष उत्तम पुरुष |
त = वर्धते. थास = वर्धसे, इट् = वर्धे |
आताम् = वर्धेते, आथाम् = वर्धेथे, वहि = वर्धावहे, |
झ = वर्धन्ते ध्वम् = वर्धध्वे महिङ् = वर्धामहे |
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- प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- भूगोल एवं खगोल विषयों का अन्तः सम्बन्ध बताते हुए, इसके क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भारत का सभ्यता सम्बन्धी एक लम्बा इतिहास रहा है, इस सन्दर्भ में विज्ञान, गणित और चिकित्सा के क्षेत्र में प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण योगदानों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित आचार्यों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये - 1. कौटिल्य (चाणक्य), 2. आर्यभट्ट, 3. वाराहमिहिर, 4. ब्रह्मगुप्त, 5. कालिदास, 6. धन्वन्तरि, 7. भाष्कराचार्य।
- प्रश्न- ज्योतिष तथा वास्तु शास्त्र का संक्षिप्त परिचय देते हुए दोनों शास्त्रों के परस्पर सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'योग' के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए, योग सम्बन्धी प्राचीन परिभाषाओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'आयुर्वेद' पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- कौटिलीय अर्थशास्त्र लोक-व्यवहार, राजनीति तथा दण्ड-विधान सम्बन्धी ज्ञान का व्यावहारिक चित्रण है, स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय संगीत के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक भारतीय दर्शनों के नाम लिखिये।
- प्रश्न- भारतीय षड् दर्शनों के नाम व उनके प्रवर्तक आचार्यों के नाम लिखिये।
- प्रश्न- मानचित्र कला के विकास में योगदान देने वाले प्राचीन भूगोलवेत्ताओं के नाम बताइये।
- प्रश्न- भूगोल एवं खगोल शब्दों का प्रयोग सर्वप्रथम कहाँ मिलता है?
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- प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कालिदास से पूर्वकाल में संस्कृत काव्य के विकास पर लेख लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्यगत विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास के पश्चात् होने वाले संस्कृत काव्य के विकास की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- महर्षि वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय देते हुए यह भी बताइये कि उन्होंने रामायण की रचना कब की थी?
- प्रश्न- क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि माघ में उपमा का सौन्दर्य, अर्थगौरव का वैशिष्ट्य तथा पदलालित्य का चमत्कार विद्यमान है?
- प्रश्न- महर्षि वेदव्यास के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालते हुए, उनकी कृतियों के नाम बताइये।
- प्रश्न- आचार्य पाणिनि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- आचार्य पाणिनि ने व्याकरण को किस प्रकार तथा क्यों व्यवस्थित किया?
- प्रश्न- आचार्य कात्यायन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- आचार्य पतञ्जलि का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- आदिकवि महर्षि बाल्मीकि विरचित आदि काव्य रामायण का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- श्री हर्ष की अलंकार छन्द योजना का निरूपण कर नैषधं विद्ध दोषधम् की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाभारत के रचयिता का संक्षिप्त परिचय देकर रचनाकाल बतलाइये।
- प्रश्न- महाकवि भारवि के व्यक्तित्व एवं कर्त्तव्य पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- महाकवि हर्ष का परिचय लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भारवि की भाषा शैली अलंकार एवं छन्दों योजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'भारवेर्थगौरवम्' की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- रामायण के रचयिता कौन थे तथा उन्होंने इसकी रचना क्यों की?
- प्रश्न- रामायण का मुख्य रस क्या है?
- प्रश्न- वाल्मीकि रामायण में कितने काण्ड हैं? प्रत्येक काण्ड का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- "रामायण एक आर्दश काव्य है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- क्या महाभारत काव्य है?
- प्रश्न- महाभारत का मुख्य रस क्या है?
- प्रश्न- क्या महाभारत विश्वसाहित्य का विशालतम ग्रन्थ है?
- प्रश्न- 'वृहत्त्रयी' से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- भारवि का 'आतपत्र भारवि' नाम क्यों पड़ा?
- प्रश्न- 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' तथा 'आर्जवं कुटिलेषु न नीति:' भारवि के इस विचार से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- 'महाकवि माघ चित्रकाव्य लिखने में सिद्धहस्त थे' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- 'महाकवि माघ भक्तकवि है' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- श्री हर्ष कौन थे?
- प्रश्न- श्री हर्ष की रचनाओं का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- 'श्री हर्ष कवि से बढ़कर दार्शनिक थे।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- श्री हर्ष की 'परिहास-प्रियता' का एक उदाहरण दीजिये।
- प्रश्न- नैषध महाकाव्य में प्रमुख रस क्या है?
- प्रश्न- "श्री हर्ष वैदर्भी रीति के कवि हैं" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- 'काश्यां मरणान्मुक्तिः' श्री हर्ष ने इस कथन का समर्थन किया है। उदाहरण देकर इस कथन की पुष्टि कीजिए।
- प्रश्न- 'नैषध विद्वदौषधम्' यह कथन किससे सम्बध्य है तथा इस कथन की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'त्रिमुनि' किसे कहते हैं? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाकवि भारवि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी काव्य प्रतिभा का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- भारवि का विस्तार से वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के प्रथम सर्ग का संक्षिप्त कथानक प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- 'भारवेरर्थगौरवम्' पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- भारवि के महाकाव्य का नामोल्लेख करते हुए उसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की कथावस्तु एवं चरित्र-चित्रण पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- किरातार्जुनीयम् की रस योजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति का परिचय लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भवभूति की नाट्य-कला की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- 'वरं विरोधोऽपि समं महात्माभिः' सूक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए ।
- प्रश्न- कालिदास की जन्मभूमि एवं निवास स्थान का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास की कृतियों का उल्लेख कर महाकाव्यों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास की काव्य शैली पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि कालिदास संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि हैं।
- प्रश्न- उपमा अलंकार के लिए कौन सा कवि प्रसिद्ध है।
- प्रश्न- अपनी पाठ्य-पुस्तक में विद्यमान 'कुमारसम्भव' का कथासार प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- कालिदास की भाषा की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- कालिदास की रसयोजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- कालिदास की सौन्दर्य योजना पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य' की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए -
- प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि के जीवन-परिचय पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'नीतिशतक' में लोकव्यवहार की शिक्षा किस प्रकार दी गयी है? लिखिए।
- प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की कृतियों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- भर्तृहरि ने कितने शतकों की रचना की? उनका वर्ण्य विषय क्या है?
- प्रश्न- महाकवि भर्तृहरि की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- नीतिशतक का मूल्यांकन कीजिए।
- प्रश्न- धीर पुरुष एवं छुद्र पुरुष के लिए भर्तृहरि ने किन उपमाओं का प्रयोग किया है। उनकी सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- विद्या प्रशंसा सम्बन्धी नीतिशतकम् श्लोकों का उदाहरण देते हुए विद्या के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- भर्तृहरि की काव्य रचना का प्रयोजन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- भर्तृहरि के काव्य सौष्ठव पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- 'लघुसिद्धान्तकौमुदी' का विग्रह कर अर्थ बतलाइये।
- प्रश्न- 'संज्ञा प्रकरण किसे कहते हैं?
- प्रश्न- माहेश्वर सूत्र या अक्षरसाम्नाय लिखिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए - इति माहेश्वराणि सूत्राणि, इत्संज्ञा, ऋरषाणां मूर्धा, हलन्त्यम् ,अदर्शनं लोपः आदि
- प्रश्न- सन्धि किसे कहते हैं?
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- हल सन्धि किसे कहते हैं?
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए।